आस्था का चेहरा कैसा हो!
प्रेम शाश्वत और सौन्दर्यपूर्ण होता है। प्रेम किसी पर करना या जताना नहीं पड़ता लेकिन आस्था रखनी पड़ती है। जैसे प्रेम की निर्झरनी स्वत: मन को भिगोती चलती है। वैसे आस्था का स्वाद स्वयं नहीं बल्कि उसके नमक को हमें सायास चखना पड़ता है। ये तथ्य हृदय में स्वत: स्फुरित नहीं होता। जब भी हम किसी के प्रति अपनी आस्था बनाते हैं, तो अपने तमाम गाढ़े विश्वासों को दरकिनार करना पड़ता है। इस प्रकार से भी कह सकते हैं कि अपने चेहरे पर हमें आस्था का चेहरा स्वयं निर्मित करना पड़ता है। ओढ़ना पड़ता है। वैसे कुछ आस्था करने वाले चेहरे हमें विरासत में भी मिलते हैं। हमने अक्सर लोगों को कहते सुना है कि "हम फलाने की बात पर इसलिए आस्था रखते हैं क्योंकि हमारे माता-पिता रखते थे।" आस्था के ऐसे घटकों को हम सीने से लगा कर जीवन जीने लगते हैं, जिनको जानते तक नहीं होते हैं। क्यों? मनुष्य द्वारा किया गया स्वयं के साथ ये व्यवहार उचित कहलायेगा? क्या इस प्रकार की छलना कोशिश से वह छला नहीं जाएगा? वो भी अपने ही हाथों।
चिंतामणि में
श्रद्धेय रामचन्द्र शुक्ल जी कहते हैं,“अनुभूति के
द्वंद्व से ही प्राणी के जीवन का आरम्भ होता है। उच्च प्राणी मनुष्य भी केवल एक
जोड़ी अनुभूति लेकर इस संसार में आता है। बच्चे के छोटे-से हृदय में पहले सुख और
दुःख की सामान्य अनुभूति भरने के लिए जगह होती है। पेट का भरा या खाली रहना ही ऐसी
अनुभूति के लिए पर्याप्त होता है।“ इसका अर्थ तो
यही हुआ कि जो शाश्वत अनुभूतियाँ,रस और भाव हैं वे जन्म से
हमारे हृदय में स्थापित होते हैं। उनके लिए हमें अलग से कोई जद्दोजहद नहीं करनी
पड़ती है। और जिन अनुभूतियों को हम बाह्य जगत से चुनते हैं, तो
उनमें जोखिम का खतरा होना तो लाजमी है। इस बात की समझदारी हमें कौन देगा? कि जिस बात पर आप आस्था रखने जा रहे हो वह जीवनोपयोगी है या नहीं। संसार में कितने
जन हैं जो आस्था तो खूब करना जाते हैं लेकिन आस्था शब्द के दो साबुत और एक आधे
अक्षर के मतलब को समझ तक नहीं पाते। उन्हें देखकर मन में रह-रहकर एक ही सवाल उठता
है कि आस्था का चेहरा क्या इससे भी सुंदर हो सकता था? या
जिसे हम देख रहे हैं बस यही 'अल्टीमेट' है। फिर-फिर मन सोचने पर मजबूर होने लगता है कि आखिर आस्था शब्द का जन्म
किन परिस्थियों में हुआ होगा? आख़िर मनुष्य को इस तथ्य की खोज
क्यों करनी पड़ी होगी? आस्था किसके मन की उपज होगी? वह व्यक्ति कैसा होगा जिसको अपने आनन्द के लिए-अपनी सहूलियत के लिए किसी
दूसरे को माध्यम बनाना पड़ा होगा?
ये तो साफ़ हो ही
गया है कि आस्था नामक तथ्य के बीज हमारे भीतर जन्म से नहीं गढ़े होते हैं? इनको कभी किसी के द्वारा गाढ़ा जाता है या कभी हम स्वयं स्वीकारते हैं। अब
बात आती है कि जो व्यक्ति आस्था को हमारे भीतर बोता है, क्या
वह आस्था के मूल को पूरी तरह से समझता है? उसका मन आस्था की
सम्पूर्ण सुंदरता का मतलब ग्रहण कर चुका होता है? समाज में
ऐसे भी लोग हैं जो किसी के प्रति आस्थापूर्ण बातें हमें घोंटकर पिलाना चाहते हैं,
क्या उन्होंने उसके मर्म को कभी अपनी निजता में जाना होगा? और यदि नहीं, तो हमें क्यों सिखा रहे हैं। यहाँ फिर
से मैं श्रद्धेय रामचंद्र शुक्ल जी को याद करुँगी। वे अपने निबंध श्रद्धा और भक्ति
में कहते हैं,”श्रद्धा न्याय-बुद्धि के पलड़े पर तुली हुई
एक वस्तु है जो दूसरे पलड़े पर रखे हुए श्रद्धेय के गुण, कर्म
आदि के हिसाब से होती है।“ तो अब बताइए जिस बच्चे
ने अपनी बुद्धि के पलड़े पर रखकर सामने वाले को तौला नहीं उसके प्रति उसको आस्था
रखना, अनिवार्य बताना कहाँ की बुद्धिमत्ता है। इस
मामले में अबोले जीवों की दुनियाँ मुझे ज्यादा सुंदर लगती है। वहाँ कोई किसी के
ऊपर अपने विचारों को थोपता नहीं। वहाँ कोई किसी के प्रति अतिरिक्तिता के बोझ से
बोझिल होकर जीवन यापन करने के लिए वाद्ध्य नहीं है। सही मायनों में उनके जीवन में
ही संतुलन है। अबोलों के संसार में हर कार्य जीवन के निहित होता है। झूठे मनोरंजन
के लिए कदापि नहीं।
खैर, जब हमारे पास और बहुत से कार्य करने को पड़े हैं तो आस्था जैसा श्रमसाद्ध्य
कार्य क्यों? क्यों अपने आपे को छोड़कर हम दूसरों पर आस्था
करें? और जब ये पता चल जाता है कि जिस पर आस्था करने को
दुनिया दवाब बना रही है, उसके अंदर सगुणी गुणवत्त्ता का अभाव
है। वह खुद आस्था के मर्म को नहीं जानता है। उसके लिए आस्था के सारे प्रसंग गौण
हैं। फिर तो सवाल उठना चाहिए कि हम उसको महान क्यों माने? क्यों
अपना सर सिर्फ दिखावे लिए झुकाएँ? क्यों न हम जैसे हैं वैसे
ही बने रहें। जबकि खाली घड़े समान वे महान व्यक्ति उन बादलों की तरह होते हैं जिनमें
बिजली तो होती है लेकिन पानी नहीं होता। और जब हमारी जवाबदेही स्वयं से, स्वयं को हरा रखने की हो, तो बिजली का हम क्या
करेंगे? जीवन की प्यास बुझाने के लिए पानी के स्थान पर बिजली
को हम कैसे पी सकेंगे। ऐसी स्थितियों में जिंदा रहने के लिए खोखली-अबूझी आस्था करना
बेमानी ही होगा न? उससे संतोष नहीं सिर्फ असंतोष ही जन्मेंगा
जो हमारी दैनंदनी को अनियमित बना डालेगा।
इस संसार में
कभी-कभी सब जानते हुए भी हम कुछ लोगों के कहे-सुने या ऐसे ही बिना घटी-मुनाफ़ा के
अपनी कमियाँ छिपाने के लिए आस्था का दीया जलाने का उपक्रम करते हैं? क्योंकि कुछ अति चतुर लोग ये बात अच्छी तरह से जानते हैं कि दीया के तले
अखंड अँधेरा वास करता है। ऐसा अँधेरा, जिसमें दीया भी अपना
होना नहीं देख पाता। तो हमें कोई कैसे देख सकेगा। इसलिए भी संसार में आस्था के
दीपक खूब जगमगाते हुए दिखाई पड़ते हैं। अब सवाल ये उठता है कि जहाँ इतना घना अँधेरा
हो वहाँ प्रेममय विश्वास अपने प्राणों को रोशन कैसे रख सकेगा।
यदि आपसे पूछा
जाए कि जलते हुए दीए को देखकर किसको खुशी मिलती होगी? दीया जलाने वाले को या दूर से देखने वाले को? या
मूर्ति को या फिर स्वयं दीपक को? तो आप क्या कहेंगे नहीं
जानती। हाँ, इतना ज़रूर जानती हूँ कि दीपक की टिमटिमाती हुई
सुंदरता नजदीक से नहीं बल्कि दूर से देखने वाला ही प्राप्त कर सकता है। क्योंकि
दीपक जलाने वाले हाथों को सदैव ताप सहना पड़ता है। वही दीपक जब पूजा की थाली में
रखा दूर से देखा जाए तो वह मदिर-मदिर झिलमिलाहट में अपनी मनोरमता छोड़ता-सा प्रतीत
होता है। उसी प्रकार आस्था दूर से ही सुंदर दिखने वाला वह मानवीय उपक्रम है,
जिसमें तमाम तरह की घुटन,टूटन और चिल्लाहटें
आकंठ डूबी होती हैं।
तमाम बातों, विचारों और मंथन के बाद जब आप मंदिर जाते हो तो भगवान की मूर्तियाँ क्या
आपको या आपके आस्तिक चढ़ावे को देखकर मुस्कुरा उठतीं हैं? या
आपके मंदिर पहुँचते ही ईश्वर उनमें प्रकट हो जाता है? या
आपकी स्तुतियाँ इतनी पवित्र होती हैं कि मूर्ति आपको देखकर बिहँस पड़ती है। या आपकी
आस्था का ताप उन पर हावी हो जाता है, इसलिए वे मंद-मंद
मुस्कुरा पड़ती हैं। क्या सोचते हैं आप?पता नहीं। लेकिन मुझे
हमेशा से ये लगता रहा है कि जिन मूर्तियों को आप-हम अँधेरे में भी मुस्कुराते हुए
देख पाते हैं। उनके चेहरे पर जड़ी हुई मुस्कुराहटें ईश्वरीय नहीं बल्कि उस जीवंत
मूर्तिकार की होती हैं जो निर्द्वंद्व भाव से अनगढ़ पत्त्थर को बारीक-बारीक लगातार
काटता रहता है। वह कितने मौसमों को मूर्ति बनाते हुए सहज ही निर्विकार भाव से पीता
रहता है। और जब मूर्तिकार अपने कार्मिक सरोबर की उत्ताल गुनगुनी लहरों में पिघलने
लगता है बस उन्हीं विरल क्षणों में मूर्तियों के होठों पर वह अपनी विपुल मुस्कान
उतारकर चुपके से इस प्रकार टाँक देता है कि वह चिन्मय हो उठती है।
यहाँ मैं ये भी
बताना चाहूँगी कि मूर्तिकार अपनी बनाई गयीं मूर्तियों पर एक बार अपनी मुस्कुराहट
टाँकने के बाद कभी उनकी ओर फिर लौटकर नहीं देखता। न ही उसका हमारे ऊपर कोई दबाव होता है कि उसकी बनाई कृति पर कोई या सभी आस्था करें। उसे तो ये भी नहीं
पता होता है कि उसकी मुस्कुराहट उससे अलग होकर किस मन्दिर की शोभा बढ़ा रही होगी।
हाँ, उसे इतना जरूर पता होता है कि उसके द्वारा उकेरी गयी
मुस्कान कभी भी मिटेगी नहीं। लाख आँधी-तूफ़ान आये कभी फीकी नहीं पड़ेगी। झमाझम बरसात
क्यों न पड़े सच्चे मूर्तिकार की आदिम मुस्कान पहने ईश्वरीय प्रतिमा की हँसी टस से
मस नहीं होती। आप चाहे दिन के उजाले में उसे देखें या रात की घनघोर कालिमा में,
सरजक की सर्जना जिंदाबाद ही मिलती है। मुझे लगता है कि एक सच्चा
रचनाकार अपनी रचना की मुस्कान उसी प्रकार रचता है जैसे एक कशीदाकार का वह आख़री
गहरा टांका जिससे उसकी फुलकारी मुक्मल होती है। किसी नृत्यांगना के नृत्य की वह
आख़री मुखरित ठुमक और माँ की ममतालु बुलाहट। जिसको जिधर से भी देखो मुस्कुराती
हुई-सी ही जान पड़ती है। लेकिन माँगी हुईं भावनाओं में ये खूबी कहाँ।
वैसे भी
मूर्तियों और मंदिरों की दीवारों को आस्था के उजाले की दरकार कहाँ होती है। वहाँ
भी हम ही अपने लिए उजाले बुनने की मन्नतें माँगने आस्था के फूलों की टोकरी लिए
पहुँच जाते हैं। ईश्वर न उजाले बाँटता है और न ही छीनता है। अमर उजाले भोगने की
छलना चाहत सदैव हमारी होती है। इसीलिए तो हम अपनी आँखें मूंदकर प्रार्थनाएँ करते
हैं। जिससे किसी को भी आसानी से रौंदकर आगे बढ़ा जा सके। छीन-झपटकर उजाले की चादर
बुनने की जुगत करने में भी हमें संकोच नहीं होता। और हम कहते हैं
कि हम सच्चे आस्थावान हैं। हम ये सिरे से भूल जाते हैं कि छीनी हुई चीज़ और उधार
लिया हुआ एक भी विचार अपना अस्तित्व बुलबुले भर ही रखता है, वह
स्थाई सुख दे ही नहीं सकता।
आपने देखा होगा, जमीन से उखड़े हुए पेड़ में ज़िंदा जड़ें नहीं होती हैं। उसे तो हर हाल में
सूखना ही होता है। जैसे एक कुआँ उधार के जल से नहीं भरा जा सकता। जब तक कि उसमें
अपना सोता नहीं फूटता वह कुआँ अंधा ही कहलायेगा। सच कहें तो प्यास बुझाने की ताकत
कुएँ शब्द में भी नहीं होती अपितु जब उसकी छाती से जल फूटता है तब कुआँ, कुआँ कहलाता है। तो जो आस्था जीवन में चारुता न भर सके वह तो सिर्फ़
अतिक्रमण ही कहलाएगी। इसलिए मुझे कबीर बहुत प्रिय हैं,"मौको कहाँ ढूंढे है रे बन्दे मैं तो तेरे पास में,ना
तीरथ में ना मूरत में, ना एकान्त निवास में,ना मंदिर में ना मस्जिद में, ना काशी कैलाश में,खोजि होय तो तुरंत मिलि हौं, पल भर की तलाश में....।"
***
अणुव्रत पत्रिका में प्रकाशित |
बहुत अच्छा विचारपूर्ण पोस्ट। शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१७-१०-२०२०) को 'नागफनी के फूल' (चर्चा अंक-३८५७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी
आप दोनों सुधी मित्रों का हार्दिक आभार !
ReplyDeleteसटीक
ReplyDeleteजो आस्था जीवन में चारुता न भर सके वह तो सिर्फ़ अतिक्रमण ही कहलाएगी |
ReplyDeleteसटीक एवं सार्थक सृजन।
काफी शोधपूर्ण आलेख लिखा । बधाई हो कल्पना ।
ReplyDeleteरेखा श्रीवास्तव
काफी शोधपूर्ण आलेख लिखा । बधाई हो कल्पना ।
ReplyDeleteरेखा श्रीवास्तव
काफी शोधपूर्ण आलेख लिखा । बधाई हो कल्पना ।
ReplyDeleteरेखा श्रीवास्तव