कहानियों पर आयीं प्रतिक्रियाएँ
किसी भी रचनाकार के शब्द जब सबको अपने से लगने लगे तो लिखना सार्थक-सा लगने लगता है. अभी हाल ही में ,मेरी तीन कहानियाँ वर्तमान समय की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं हैं. जैसे--साहित्य अकादमी की पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य' में कहानी --"कितनी कैंदें", हिंदी अकादमी की पत्रिका, इन्द्रप्रस्थ भारतीय में प्रकाशित "लाल ईंटों वाली चिट्ठी" और पाखी पत्रिका में प्रकाशित "एक दिन का सफ़र" कहानी प्रकाशित हुई है. इन तीनों कहानियों पर दूर दूर से पाठकों के फ़ोन आने से लेकर मैसेज आने के साथ समकालीन लेखक साथियों ने भी अपने मंतव्य प्रकट कर प्रतिक्रियाएँ भेजी हैं. सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ.
भूपेन्द्र कुमार जी की प्रतिक्रिया
कहानी की जमीन
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समकालीन हिन्दी कहानी के परिदृश्य को देखने के बाद एक सजग पाठक के जेहन में यह बात आनी चाहिए कि अमुक कहानी की जमीन क्या है और इसकी प्रकृति कैसी है।दरअसल कहानी के बारे में यह सवाल इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि निर्मल वर्मा ने कहानी को कविता और उपन्यास के सम्भोग से जन्म लेने की बात कही है।कहानी के लिए ऐसे माता और पिता का होना न केवल स्वाभाविक है अपितु अनिवार्य भी।
आज के समय में हिन्दी में कहानियों की बाढ़ आ गई है।कुछ उत्कृष्ट लेखन भी होते हुए दिख रहा है।लेकिन फार्मूलाबद्ध लेखन के प्रति पाठकों की नाराज़गी भी जगजाहिर हो रही है।
अब आपका ध्यान एक ऐसी कहानी की ओर आकृष्ट करना चाहता हूँ जिसकी मूल संवेदना पुरानी है पर जिस जमीन की बात उठाती है वह आज भी देश के हिन्दी भाषी इलाके के सुदूर देहात और कस्बे की भयावह तस्वीर पेश करती हुई दिखती है।
कल्पना मनोरमा की कहानी "कितनी कैदें " साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य के मार्च-अप्रैल अंक में छापी गई है। यह कहानी गाँव में रहने वाली ल़डकियों की सामाजिक यथार्थ की पड़ताल करने की भरपूर कोशिश करते हुए दिखती है।बेटियों को स्कूल से आगे को पढाई आज भी बहुत से पिताओं को सही नहीं लगता है।
कल्पना मनोरमा ने सीधे-सीधे गाँव के एक परिवार का चित्रण किया है जहाँ ल़डकियों को पढ़ने के बदले रसोई और घर के कामकाज तक सीमित कर दिया जाता है। जब बड़ी बेटी मिन्नी साइकिल चलाकर आती है और उसकी दोस्ती दरोगा की हंसोड़ बेटी माधवी से होने की ख़बर मिलती है तो मिन्नी के पिता बाबू रात्रि भोजन के दौरान अम्मा पर सारा ठीकरा फोड़कर उन्हें कुलटा करार देते हैं। बाबू बारहवीं के बाद मिन्नी की शादी देहरादून के एक आवारा शराबी से करके उसके पिता अपने खानदान की इज्ज़त की रक्षा समझते हैं।
"कितनी कैदें" के माध्यम से कहानीकार ने न केवल पितृसत्तात्मक मुद्दों की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट किया है जो लड़कियों को कैद खाने में बंद करने पर आमादा रहते हैं। हाल के दशकों में ल़डकियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के सरकारी प्रयास और जागरुकता के बावजूद भारत के अपेक्षाकृत निर्धन राज्यों में स्थिति बहुत चिंतनीय है।
ससुराल में भी मिन्नी को एक बेटी को जन्म देने के बाद कैदखाना ही नसीब होता है। नारकीय यातना भोगते-भोगते वह डिप्रेशन का शिकार हो जाती है और इसकी त्रासद परिणिति दिमाग बुखार से ग्रस्त होकर इहलीला समाप्त होने में दिखती है।
" कितनी कैदें " केवल मिन्नी जैसी ल़डकियों की तकदीर तक ही सीमित नहीं लगती है। यह मिन्नी के अनारकली बनने के साथ - साथ उसके भाई मोहन के द्वारा तमाम खानदानी रवायत को उलट देने की बात भी दर्शाती है।मोहन के किसी लड़की के साथ अफेयर की बात भी कहानी में शामिल है।
मिन्नी के अंतिम संस्कार के बाद प्रतिभा के साथ वैदेही का प्रस्थान कहानीकार के हाथों poetic justice होते हुए लगता है।
बात पुन: कहानी की जमीन के बारे में। कल्पना मनोरमा ने सामाजिक अध:स्तर ( Substratum) पर दृष्टिपात करने की कोशिश की है। अतियथार्थ की चिंतनधारा के साथ मनोव्यथा के बहाव को भी वह समान रूप से कहानी की संरचना में शामिल करती हुई लगती हैं।
आने वाले समय में हिन्दी कथा साहित्य के आलोचक इस कहानी को लेकर बहस कर सकते हैं कि कल्पना मनोरमा ने प्रेमचंद के खेत में महादेवी वर्मा के बीच छिड़क दिए हैं।साथ ही मन्नू भंडारी के कीटनाशक का प्रयोग भी किया है।
ज्योत्स्ना मिश्रा की प्रतिक्रिया
आज कहानियां पढ़ने का दिन था। कल्पना मनोरमा की तीन कहानियां पढ़ीं।
भारतीय समकालीन साहित्य में प्रकाशित "कितनी कैदें"
इंद्रप्रस्थ भारती में आई "लाल ईंटों वाली चिट्ठी"
और पाखी पत्रिका में छपी "एक दिन का सफ़र"
कितनी कैदें, एक पित्रसत्तात्मक परिवार में एक दबंग पिता दब्बू मां और हैरतअंगेज तरह से क्रूर समाज में पिस रही एक लड़की की बेहद मार्मिक परिवेश और बेबसी का चित्रण।
सत्या शर्मा 'कीर्ति' की प्रतिक्रिया
"कितनी कैदें"
ये कहानी स्त्री का कौन-सा रूप है जिसे पूजा जाए जिसकी वंदना की जाए ... बताती है. कहानी पढ़ कर मन बहुत देर तक सोचता रह गया।
हाँ, मिन्नी के मरने पर मेरी भी आँखे छलक आईं और बूँद निकल पन्नों पर गिर पड़े। किसी के जीवन में कितनी- कितनी तकलीफें लिखी होती हैं।
या सरल होना ही दुर्भाग्य का कारण है ।सीधी -सादी मिन्नी जो सदा माता- पिता की बातों को बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लेती है। क्या यही उसकी सबसे बड़ी गलती है।
कहानी में माँ के द्वारा अपनी ही बेटी का तिरस्कार बहुत सालता रहा। कोई माँ इतनी रूड भी हो सकती है कि पति द्वारा किए अपमान के लिए अपनी पुत्री की जिंदगी ही बर्बाद कर दे।
बड़ी होती बेटी जो दुनिया देखना सिख ही रही थी, हँसना- मुस्कुराना समझ ही रही थी। उसकी हंसी को कैद कर लेना, उसके पंखों को काट आजीवन आत्महीनता के दलदल में धकेल देना । परेशान करता रहा।
एक माँ का रूप ऐसा हो तो ,उसे माँ होने का अधिकार ही नहीं मिलना चाहिए।
मुझे सभी पुरुष पात्रों से कठोर माँ का चरित्र लगा। जो बच्ची की पीड़ा ही समझ न पाए सिर्फ इसलिए कि उसकी बेटी के कारण उसे ताने सुनने पड़ते हैं।
आपकी तीनों कहानियाँ दिल को छू गयीं। मन में उतरती रहीं।
आप बहुत अच्छा लिखती हैं। बहुत सारी बधाई आपको.
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"लाल ईंटों वाली चिट्ठी" कहानी पर भूपेन्द्र कुमार जी की प्रतिक्रिया
कल्पना मनोरमा की कुछ कहानियों को पढ़कर सहज ही एहसास होता है कि भावनात्मक गहनता और संवेदनात्मक तीव्रता के साथ सामाजिक यथार्थ को एक चमत्कारिक गद्य का एक वृहद आयाम ऐसे भी प्रदान किया जा सकता है। इस कहानी की मूल
संवेदना यह तो जरूर जताने का प्रयास करते हुए दिखती है कि हिन्दी कथा साहित्य का
आकाश कितना व्यापक हो सकता है और अपने समय के सच के धाह को समेटने में वह यूरोपीय
साहित्य से कम तत्पर नहीं है।
भारतीय समाज में बहुत से बदलाव तेजी से हो रहे हैं।
इक्कीसवीं सदी के पहले से ही हमारे दिलोदिमाग को हालत यह हो गयी कि हम टूटने और फूटने को ही आधुनिकता की मिसाल समझने लगे।कल्पना मनोरमा ने इस व्यापक बदलाव के रूखे पक्ष के साथ-साथ कोमल मानवीयता की छुअन को बड़ी बारीकी से पेश किया है।
अम्मा के बड़े बेटे राजन का उसकी बीबी से तलाक़ के बाद अपने भावज रेवा के हाथ में अपनी नन्ही बिटिया सौंपना और अम्मा के द्वारा रेवा को निःसंतानता की भावना से परे जाकर मुनिया की असली माँ का किरदार निभाना, जितना भारतीय पारिवारिक मूल्यों के उच्चतम आदर्श का गवाह है, उतना ही आगे चलकर राजन के द्वारा मुनिया को रेवा से अलग करके बोर्डिंग स्कूल में दाखिला कराना भावनात्मक अत्याचार का साक्ष्य लगता है।
कल्पना मनोरमा ने उन सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों को तलाशने का प्रयास किया है जो आधुनिकता की आँधी में ध्वंस के बाद मलबे में दब चुके हैं।
राजन और मौली का आकस्मिक प्यार अंतर्जातीय विवाह में तब्दील होता है। मौली को एक छोटे से कस्बे में रहने से इंकार करना, उस परिवर्तन को रेखांकित करते हुए लगता है जो आदमी को शहर के प्रति आकर्षित करता है।
कल्पना मनोरमा आज की तारीख में यह तहकीकात करते हुए दिखती हैं कि क्या फाइव जी मोबाइल नेटवर्क और चौबीस घंटे बिजली के लिए हम हफ्ता दिन भी रह सकते हैं? खासकर जब हमें ससुराल में रहना पड़े।
आर्थिक और तकनीकी तरक्की ने आदमी को इतना निष्ठुर बना दिया है की वह अपनी सन्तान को भी तिलांजलि देकर अपने आपको आजाद रखना उचित समझ रहा है। ममता पर इतना दुर्धष प्रहार आज की शिक्षा के खोखलेपन को भी उजागर करते हुए लगता है। परिवार की ईकाई को ही लील रहा है।
कल्पना मनोरमा ने अम्मा के चरित्र के माध्यम से भारतीय समाज के बदलाव को अपने ही खुरदरे अंदाज में पेश किया है। हिन्दी के प्रदेश की बोली का भाषाई समावेश कहानी को एक किस्म का गरमाहट प्रदान करते हुए दिखता है
"लाल ईंटों पर चिट्ठी" ....चिट्ठी लिखना बीते ज़माने की बात हो चुकी है। कहानी के शीर्षक से कहानी किसी पीरियड पीस का आख्यान लगती है पर कहानी की अंतर्दशा बेहद संवेदनशील और सूक्ष्म है। कहानी के पात्र मौली जैसी महिला आज हमारे आसपास दिख रही हैं जो बगैर 5 जी और wifi के एक दिन भी किसी कस्बे में अपने परिवार के साथ नहीं रहना चाहती हैं।
यह कहानी मनुष्य की संवेदना के शुष्क होने की स्थिति से अवगत कराने की कहानी लगती है। और तो और लिव इन रिलेशनशिप में रखकर शारीरिक हवस पूरा करने के बाद मौली जैसी महिलाएं अपने बच्चा जनने के बाद भी अपनी स्वच्छंदता की खातिर तलाक के साथ बच्चे को भी छोड़ने से भी झिझकती नहीं है। इक्कीसवीं सदी में पारिवारिक विघटन का ऐसा विद्रूप रूप सोचा नहीं जा सकता है। उसे कल्पना मनोरमा ने अपनी कहानी का कथ्य बनाया है।
और इस तरह कल्पना मनोरमा की कहानी के रेंज को विस्तृत होते देखना सुखद आश्चर्य है।
ज्योत्स्ना मिश्रा की प्रतिक्रिया: "लाल ईंटों वाली चिट्ठी"
दूसरी कहानी लाल ईंटों वाली चिट्ठी मानवीय संबंधों और परिवारिक द्वंदों की बात कहती है, एक तरफ़ एक ममता की मारी निस्संतान मां है और दूसरी तरफ स्वयं के लिए मासूम बच्चे को छोड़ सकने वाली जननी जो गोद में आईं बच्ची से मां का जुड़ाव ये जानते हुऐ भी की आखिरकार इससे बिछड़ना पड़ सकता है ,मन भिगो देती है।
कथानक की सुंदर बुनावट है इस कहानी में दिखी।
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"लाल ईंटों वाली चिट्ठी" कहानी पर Nirdesh Nidhi जी की प्रतिक्रिया.
'लाल ईंटों वाली चिट्ठी' कल्पना जी द्वारा लिखी गई हाल ही में 'इंद्रप्रस्थ भारती' में प्रकाशित कहानी बहुत ही मार्मिक लगी। हालांकि देखें तो मां ना बन पाने की व्यथा को मुख्य नहीं रखा गया, परंतु फिर भी वह मुख्य है।
एक नन्ही सी बच्ची से उसकी मां छूट गई है। चाची के रूप में उसे एक ऐसी मां मिल गई है जिसका अपना कोई बच्चा नहीं है। कैसी विडंबना होगी, जब उसने बच्ची मुनिया को अपनी बच्ची स्वीकार कर अपने कलेजे से लगा लिया, तभी वह बच्ची उससे छिन गई।कहानी में दुःख का आप्लावन उतर देती हैं कल्पना जी।
उस निःसंतान स्त्री का दुःख कल्पना जी ने भीतर तक महसूस कर कर, अपनी सुंदर, सुगढ़ भाषा में लिखा है, जो पाठक के मन पर भी छप जाता है।
जैसे - बांसुरी की तरह बज कर मुनिया ने मेरे मातृत्व को जगा ही लिया था। मुनिया के चाचा मुझे मुनिया पर ममता उड़ेलते देखते तो थोड़ा डर जाते, कहते, 'रेवा, तुम मुनिया को अपने मन का आश्रय मत बना लेना। याद रखना कि यह भैया की बेटी है, वे कभी भी इसे वापस मांग सकते हैं।
एक निसंतान मां को जब वह नन्ही मुनिया मिल जाती है तब भी वह मां, मुनिया की आंखों में अपनी बायोलॉजिकल मां की तलाश देख पाती है। यह लेखिका की अपनी संवेदना है जो उसकी भीतर है और जो वे कहानी के पात्र में ढालकर कहती हैं।
वह मां अपने दिन याद करती है जब बीमारी के दिनों में उसे अपनी मौसी के घर रहना पड़ा था हालांकि मौसी मां के बराबर ही होती है परंतु फिर भी बच्ची अपनी मां को ही याद करती रहती है।
लाल ईंटों पर लिखती रहती है मम्मी हमें बुला लो हमें नहीं रहना मौसी के घर।
इस कहानी में एक और भी पक्ष है प्रेम विवाह जिसकी परिणति अच्छी नहीं होती और मुनिया की मां उसके पिता को छोड़कर चली जाती है तब जबकि मुनिया एक शिशु ही है।
कहानी का ताना-बाना बहुत कुशलता से गढ़ा है। कल्पना जी के पास कहने की एक कुशल कला है, सुंदर भाषा है उनके पास। वही इस कहानी में दिखाई देती है।
बच्ची को हॉस्टल में छोड़ना तय हुआ है उसको लेने के लिए उसके पिता आ गए हैं
'भैया आ गए हैं मुनिया अकेली नहीं मेरी आत्मा लेकर शिमला चली गई। वीरानियां ही अब मेरा पाथेय थीं।..लाल ईंटों पर चिट्ठी लिखने का मौसम एक बार फिर मेरे जीवन में आ गया था।'
इन पंक्तियों को पढ़कर आंख भर आती है। बहुत बहुत बधाई आपको कल्पना जी इस मार्मिक कहानी के लिए। आपकी कलम से ऐसी और उससे भी आगे की कहानियों की प्रतिक्षा है। हार्दिक शुभकामनाएं आपको।
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"लाल ईंटों वाली चिठ्ठी" कहानी पर सत्य शर्मा कीर्ति की प्रतिक्रिया.
"लाल ईंटों वाली चिठ्ठी" कहानी पढ़ कर मन विचलित- सा हो गया।
कितनी बारिकी से आपने एक स्त्री मन के उस कोने को छुआ है जहां माँ नहीं बन पाने की पीड़ा पिघलती रहती है।
कहानी सिर्फ स्त्री मन को नहीं दिखाती बल्कि माँ के विभिन्न रूपों को दिखाती है।
एक माँ जिसे संतान पैरों की जंजीर लगती है और अपने ईगो में नवजात को छोड़ चली जाती है।
एक माँ जो सास हैं लेकिन जानती हैं, माँ होना जीवन की सबसे सुखद अनुभूति है इसलिए वह चाहती हैं कि उनकी छोटी बहू भी उस सुख का अनुभव करे।इसलिए उसके अंदर के मातृत्व को जगाने का हमेशा प्रयास करती हैं। लीक से हट कर सास - बहू का यह रिश्ता खींचता है अपनी ओर।सच में अब बदल रही हैं औरतें । तभी तो इस रिश्ते से इतर एक स्त्री दूसरी स्त्री की पीड़ा समझ रही हैं ।
पर एक पुरुष का इस हद तक स्वार्थी होना खल जाता है या शायद उसके प्वाइंट ऑफ व्यू से सोचें तो अपनी बेटी को अच्छी शिक्षा देना चाहता हो । फिर भी एक यशोदा की गोद से कृष्ण को छीन लेना कहाँ उचित है।
लाल ईंटो पर लिखी चिठ्ठी धीरे- धीरे आँखों के रास्ते मन पर उतरती चली जाती है।उसकी वेदना पर पाठक भींगते रहते हैं।
और मन ही मन दुआएं देते हैं रीवा जल्द ही तुम्हारी गोद हरी हो।
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"एक दिन का सफ़र" कहानी पर ज्योत्स्ना मिश्रा की प्रतिक्रिया...
"सोमवार को बेड से पांव नीचे धरो नहीं कि सीधे शनिवार रात को ही सुकून मयस्सर होता है "
बहुत कम स्त्रियां होंगी जो इस कथन से खुद को रिलेट न कर सकें. नायिका उच्च मध्यम वर्ग की गृहणी है जो ऑफिस भी जाती है वो सुबह कार से मैट्रो स्टेशन जाती है ओर फिर मैट्रो से कार्य स्थल । सुबह जल्दी उठती, भागते दौड़ते काम निपटाती बिना नाश्ता किए निकलने पर भी ऑफिस के लिए लेट होती रजिस्टर पर रेड डॉट पाती फिर भी काम या थकावट समस्या नहीं असल समस्या है "ओके... श्योर... लव यू! जैसे यांत्रिक वाक्यों के शब्दों के बीच लगे ये डॉट..डॉट ..डॉट ..समस्या परिवार के लिए जी जान से नींद भूख भूल जुटे रहने में नहीं होती स्त्री को ,असल समस्या हैं ये प्रश्न;
"क्यों उठती है अपनत्व की चाहत...?"
"साझेपन की तमन्ना, सबकी आंखों में अपने लिए चिंता का अरमान ....?"
"किसी की परवाह में अपना सुकून?"
नायिका की दिन चर्या के बहाने कितनी परतें खुलतीं हैं , मैट्रो के सफ़र के दौरान कुछ लड़कियों का अश्वेत स्त्रियों पर गंदी फब्तियां कसना , समाज में दिनोदिन बढ़ती असंवेदनशीलता उजागर करता है , ऑफिस में ऐसे मानसिक संताप जिनपर ऊंगली धर इंगित भी नहीं कर सकते और सबसे अधिक परिवार की लापरवाही
नायिका कहती है;
"कैसी सी है ये दुनिया ...? जब जब लगा कि मैंने इसे पूरा नहीं तो थोड़ा सा तो समझ लिया तो ये पूरी नब्बे डिग्री पर घूम कर बैठ जाती
नायिका की मैमोग्राफी की रिपोर्ट आनी है , घर ऑफिस की व्यस्तता के चलते वो बेटी , बेटे और पति से रिर्पोट लाने को अनुनय करते हैं पर सब किसी न किसी बहाने कन्नी काट जाते हैं , पति तो झुंझला ही उठते, जब डॉक्टर ने फोन पर बता ही दिया कि कुछ नहीं निकला है तो इतनी क्या पड़ी है रिर्पोट की
क्या नायिका को वो "कुछ " निकला या न निकला ये जानने के लिए रिर्पोट चाहिए ? शायद नहीं ।
उसे तो तलाश है पति की आंखों में ज़रा से प्यार भरे आश्वासन की , रत्ती भर फिक्र की । बच्चों के चेहरे पर अपने लिए कंसर्न की ।
पर कहां मुहय्या होता इतना भी , नायिका अपनी कामवाली को पति से मार खाने पर उल्टा उसे हाथ जमाने को उकसाती है , पर वो अपने पर होते इमोशनल अत्याचारों पर कहां विद्रोह कर पाती
समय की घड़ी के पेंडुलम सी रहती वो एक साथ गतिमान भी स्थिर भी
और उसी तरह अगला दिन भी बीतेगा शायद जैसे पूरा हुआ ये " एक दिन का सफ़र "
आज जाना कि स्त्रियां अपने लेखन में इतना डॉट डॉट डॉट ..... क्यों इस्तेमाल करती हैं , उनका जीवन उनकी सोच उनके प्रश्न यही तो हैं समाज के दमदार वाक्यों के बीच लगे अर्थ हीन डॉट डॉट डॉट ....
सक्षम संप्रेषण के लिए साधुवाद बधाई कल्पना सखी.
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"एक दिन का सफ़र" कहानी पर सत्या कीर्ति की प्रतिक्रिया"
स्त्री होकर ही किसी अन्य स्त्री को कैसे जिया जा सकता है कल्पना जी बखूबी जानती हैं। दरअसल आप खुद वर्किंग लेडी रहीं है इसलिए उसकी पीड़ा, उसकी परेशानी आपसे बेहतरी कौन समझ सकता है।
पूरी कहानी मात्र 7-8 घण्टे की है किंतु उन्हीं घण्टों में एक स्त्री कैसे एक - एक पल जीती है , छोटी- छोटी दैनिक जरूरतों के लिए संघर्ष करती है ।स्वप्न में भी ठीक से सो नहीं पाती बल्कि रोजमर्रा की परेशानियाँ मन में घूमती रहती है। सुबह गाड़ी पार्किंग से हटानी है इस बात को सोचते हुए सोती है और स्वप्न भी पड़ोसी वर्मा जी से ही उलझती रहती है। अलार्म की आवाज पर बगैर नींद पूरी किए ही उठ जाती है ऑफिस जो जाना है। यहां एक बात मन को कचोटता है जब नायिका यह सोचती है सोमबार की सुबह के बाद शनिवार की रात की ढंग से नींद मिल पाएगी। लगता है काश कह पाती," जाओ थोड़ी देर और सो लो।"
अधूरी नींद से जागी वह पूरे दिन की तैयारी करती है । तमाम उम्र अपनों के लिए जीती है ।खुद संघर्ष कर उनके लिए रास्ते बनाती है ।किंतु पाती है वह तो उनके लिए कुछ है ही नहीं। जिस बीमारी के अनजाने भय से वह सिहर जाती है। उसके अपनों के लिए कोई मायने नहीं रखता। या उसका होना या न होना उन सबों के लिए कोई मायने नहीं रखता ।तब कितना ठगा महसूस करती है एक स्त्री।
मन तब सच में दुख जाता है जब खुद को सबके बीच महसूस करवाने के लिए उसे कड़े शब्दों में बोलना पड़ता है।
पर , प्रेम कहाँ है? जिसकी वह हकदार है।
काश कि पति उसके हाथों को हाथ में ले कहते ,तुम चिंता न करो ले आऊँगा। बच्चे कहते माँ आप परेशान न हों सारे काम से आप जरूरी हो । सभी काम छोड़ आपकी रिपोर्ट ले आऊँगा।
पर ... स्त्री का दुख , दुख ही रह जाता है। हाऊस वाइफ हो या वर्किंग ....
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बेहद संवेदनशील समय होता है जब लेखक का अपना सृजन, अपने विचार, अपना चिंतन, अपना आंकलन, अपने शब्द सबके बन जाते हैं या बनने लगते हैं। Ila Singh जी आपने "एक दिन का सफर" का पाठ मन से किया और मुझे अपने मंतव्य से अवगत भी करवाया। सादर स्नेह और साधुवाद.........
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कल्पना मनोरमा जी की 'एक दिन का सफर’ कहानी पढ़ी। कहानी बहुत सशक्त और सामयिक है ।कहानी स्त्री जीवन के विभिन्न रंग ,विभिन्न रूप,अन्तहीन जद्दोजहद का जीवंत चित्र तो बनी ही है,जहाँ कामकाजी स्त्री की रोजमर्रा की घर ऑफिस में चलती जिंदगी अपने वास्तविक स्वरूप में उभरती है वहीं कामवाली के जीवन संघर्ष भी दिखते हैं । लेकिन मेट्रो में मिलने वाली अलग -अलग वर्गों से आई स्त्रियों का सजीव वर्णन बहुत प्रभावित करता है।स्त्रियों के सशक्तिकरण की सटीक व्याख्या है ।कुछ स्त्रियों में स्वतंत्रता से स्वच्छंदता के सफर का जो एक रूप नजर आ रहा है जहाँ अपनी प्रकृति प्रदत्त संवेदनशीलता को त्याग वह पुरुषों की होड़ में बराबरी का दम्भ भर उसी स्तर पर उतर आती हैं बल्कि और नीचे …तो लगता है ऐसे में महिला सशक्तिकरण का सही स्वरूप तो कभी मिल ही नहीं पाएगा।अगर स्त्री ही स्त्री का साथ नहीं देगी और अपने को खास समझने वाला स्त्री वर्ग अपने से निम्न समझे जाने वाले स्त्री वर्ग पर यूँही तंज कसता रहेगा ,मजाक बनाते रहेगा तो महिलाओं के सशक्तिकरण की लड़ाई, संघर्ष, सारी जद्दोजहद पर पानी फिरता रहेगा।
आपने एक बहुत ही अच्छे विषय को कहानी में उठाया है ।कहानी सोचने पर मजबूर करती है।आपको एक अच्छी कहानी के लिए बहुत- बहुत बधाई....
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स्त्री के मन के भावों को शिद्दत से महसूस करने और लिखने वाली कलम को सलाम
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